अन्नदाता मजदूर बनने को विवश

अन्नदाता मजदूर बनने को विवश

विख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की प्रसिध्द कहानी ‘पूस की एक रात’ का ‘हल्कू’ आज की इस निर्मम और संवेदनही व्यवस्था का एक सच है। देश का अन्नदाता भूखा है। उसके बच्चे भूखे हैं. भूख और आजीविका को अनिश्चिता से खेती-किसानी छोड़कर मजदूर या खेतिहर मजदूर बनने को विवश कर रही है। कहा जाता है कि जब खेती का आविष्कार हुआ, तो वह मनुष्यों का नहीं, शिकार के दौरान पकड़े गए पशुओं का पेट भरने के लिए सबसे पहले खेती की गई थी। पहले तो मानव अपने शिकार को पकडऩे के बाद तुरंत मार दिया करता था। तत्काल वध करने से जब तक मांस उपयोग करने लायक रहता उसका उपयोग करते थे, लेकिन बहुत सारा मांस सड़कर खराब हो जाता था। कालांतर में मनुष्यों की समझ में आया कि यदि इन पशुओं को एक-एक कर अपनी आवश्यकता के हिसाब से वध किया जाए, तो ज्यादा उचित होगा। माना जाता है कि तभी पशुपालन और उसके बाद चरागाहों के घटने पर खेती का आविष्कार हुआ। बाद में खेती द्वारा उपजाए गए खाद्यान्न का उपयोग मानव समाज खुद के जिंदा रहने के लिए करने लगा। कालांतर में एक ऐसा भी समय आया, जब सामाजिक चेतना के चलते मांसाहार कम होता गया और मानव समाज शाकाहारी होता चला गया। लोगों के एक समुदाय ने खेती करके खाद्यान्न उत्पादन को पेशे के रूप में अपना लिया जिन्हें किसान कहा जाने लगा। भारत में तो सत्तर से अस्सी फीसदी लोग प्राचीनकाल से ही खेती पर ही निर्भर रहे हैं। खेती के चलते गांव बसे और उन गांवों में कुछ लोगों ने खेती में सहायक होने वाले उद्योग-धंधे अपना लिए और मिल-जुलकर समाज के विकास में अपनी भूमिका का निर्वाह करने लगे। जब भी देश और समाज में खाद्यान्नों का संकट आया, तो उन्हें अपनी क्षमता से अधिक अन्न उपजाकर अपने को अन्नदाता का रुतबा हासिल किया। समाज में तो खेती और किसानों को इतना सम्मान हासिल था कि इस पेशे को ही उत्तम बताया गया। जब देश पर संकट आया, तो किसानों ने अपने हल को पिघलाकर तलवार बना ली और शत्रुओं का वध करने के लिए रणभूमि में उतर पड़े। युद्धकाल में सैनिक और शांतिकाल में किसान की दोहरी भूमिका निभाने वाले किसानों की दशा आज बहुत खराब है। आजादी के बाद से ही किसानों की दशा सुधारने की दिशा में बहुत कम प्रयास किए गए। जितनी भी देश में सरकारें बनीं, सबका ध्यान औद्योगिक विकास पर ही रहा। उन्होंने कल-कारखानों के विकास की दिशा में तो पुरजोर प्रयास किया, लेकिन इस देश के अन्नदाता किसानों को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया। जब सन 1965 का युद्ध हुआ और देश में खाद्यान्न की बहुत अधिक कमी हो गई, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने 'जय जवान, जय किसानÓ का नारा दिया, तो खाली पेट सोने वाले किसानों ने एक बार फिर अपनी क्षमता से अधिक उत्पादन करके देश का मान-सम्मान बचाए रखा। लेकिन अफसोस है कि कभी किसान, तो कभी सैनिक के रूप में वेशधारण करने वाला किसान आज खुद भूखा है, कर्जदार है, हैरान-परेशान है। उसकी पीड़ा और संकट को लेकर कोई भी गंभीर नहीं है, न केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें। सब दूर से ही हो-हल्ला करके किसानों को बरगलाने में जुटी हुई हैं। यह किसानों का ही परिश्रम और सेवा भावना थी कि भारतमाता को ग्रामवासिनी का दर्जा मिला हुआ है। अब तो किसानों को अन्नदाता और भारतमाता को ग्रामवासिनी कहना, किसानों और देश का अपमान करने जैसा लगता है। यदि हमारे राजनेता ऐसा समझते-मानते तो किसानों की यह दशा तो कतई नहीं हुई होती। अब जब भी नेता किसानो की प्रशंसा में कसीदे काढ़ते हैं, तो साफ लगता है कि ऐसा कहने के पीछे राजनीति चमकाने की भावना है या फिर इस देश के करोड़ों किसानों का वोट हथियाने की लालसा है। भारतमाता के ग्रामवासिनी होने के साक्ष्य सरकारी या गैर सरकारी आंकड़े नहीं देते हैं। यह भी सही है कि इस देश की आधी से ज्यादा आबादी गांवों में रहती है और उसकी जीविका का साधन खेतीबाड़ी या फिर खेती से जुड़े सहायक धंधे हैं। आज जब देश में खेतीबाड़ी ही जर्जर हालत को प्राप्त हो रही है, तो फिर इन सहायक धंधों का क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ताज्जुब की बात है कि इतनी बड़ी आबादी का देश के कुल जीडीपी में योगदान पिछले कई दशकों से सिकुड़ता जा रहा है और अब 15 प्रतिशत से भी कम रह गया है। यह सेवा-क्षेत्र के महाविस्तार का समय है। वर्ष 2014-15 में भारतीय सेवा-क्षेत्र का मूल्य 61.18 लाख करोड़ रुपये आंका गया था, औद्योगिक क्षेत्र का मूल्य 34.67 लाख करोड़ रुपये, तो खेतीबाड़ी व सहायक गतिविधियों का मोल महज 19.65 लाख करोड़ रह गया है। इसलिए, आज जब कोई 'बढ़ते और विकास करतेÓ भारत की बात कहता है, तो उस ग्रामवासिनी भारतमाता की बात नहीं कहता, जिसका आंचल खेतों के रूप में पसरा है, बल्कि खेत-खलिहान के भारतीय महासमुद्र के भीतर सेवा-क्षेत्र के रूप में लगातार बढ़ते समृद्धि के उन टापुओं की बात करता है, जिसकी आर्थिक ताकत खेतीबाड़ी की तुलना में चार गुना ज्यादा बढ़ गई है। खेतीबाड़ी के विकास का आलम यह है कि देश में 1990 में कुल फसली इलाके का 34 प्रतिशत हिस्सा सिंचित था, तो बीस बरस बाद भी सिंचित इलाके में इतना विस्तार ना हो सका कि वह कुल फसली क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा भी पार कर सके। देश की आधी आबादी के जीवन-जीविका का आधार कहलाने वाली खेतीबाड़ी का आधा से ज्यादा हिस्सा अब भी मॉनसून के मिजाज पर ही निर्भर है। देश में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या बीते दस सालों (2003-2013) में 48.6 प्रतिशत से बढ़ कर 52 प्रतिशत हो गई है और हर कर्जदार किसान परिवार पर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है। एक ऐसे समय में, जबकि किसान-आत्महत्या के ज्यादातर मामले कर्जदारी और गरीबी से संबंधित हैं, केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का कृषि-क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने, खेती में निवेश बढ़ाने और खेतीबाड़ी को घेरनेवाली चुनौतियों से निबटने की बात कहना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले बजट में खेती पर कुछ वैसे ही ध्यान दिया जाएगा, जैसा कुछ शुरुआती पंचवर्षीय योजनाओं में दिया गया था। वैसे पिछले साल वित्त मंत्री ने बजट से पूर्व लंबी-चौड़ी बातें किसानों के पक्ष में की थी, लेकिन बाद में पिटारे से किसानों के लिए कुछ नहीं निकला था। जो निकला था, वह किसानों के लिए बहुत कम था।